अरुण जेटली जीवित होते और सुशील मोदी साइडलाइन नहीं होते तो बच जाती बीजेपी-जेडीयू की सरकार?

बिहार में जेडीयू और बीजेपी में दूसरी बार तलाक के बाद नीतीश कुमार एक बार फिर आरजेडी, कांग्रेस के साथ सरकार बनाने जा रहे हैं। ऐसे में राजनीतिक गलियारों में एक बात की चर्चा है कि क्या अरुण जेटली जीवित होते और सुशील मोदी नेपथ्य में नहीं होते तो जेडीयू, बीजेपी के बीच बात इतनी नहीं बिगड़ती। वैसे, इसके विरोध में एक तर्क यह भी दिया जा सकता है कि  वर्ष  2013 में अरुण जेटली भी जीवित थे और सुशील मोदी उपमुख्यमंत्री की भूमिका में थे फिर भी नीतीश ने 17 साल पुराने नाते को तोड़ दिया था। पर, यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीति में परिस्थिति का सापेक्षिक महत्व तुलनात्मक रूप से काफी अधिक होता है। उस समय नीतीश को बीजेपी की ओर से लोकसभा चुनाव के लिए नरेंद्र मोदी को आगे बढ़ाना रास नहीं आया था।

तब से पिछले 9 सालों में परिस्थितियां काफी बदल चुकी हैं और नीतीश भी मोदी विरोधी का राग 2017 में  ही छोड़ चुके हैं, जब उन्होंने आरजेडी का साथ छोड़कर फिर से बीजेपी के साथ बिहार में सरकार बनाई थी। बीजेपी और जेडीयू में परिस्थितियां वर्ष 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद बिगड़नी शुरू हुई। बराबर-बराबर सीट पर चुनाव लड़ने के बाद भी बीजेपी को 74 और जेडीयू को महज 43 सीटों पर सफलता मिली। जिस चिराग मॉडल की चर्चा ललन सिंह ने पिछले सप्ताह खुलकर की, असल में उसकी चर्चा दबी जुबान से जेडीयू के नेता परिणाम आने के बाद से ही करने लगे थे, लेकिन नीतीश को बीजेपी की ओर से मुख्यमंत्री स्वीकार किए जाने के बाद यह मुद्दा गौण हो गया था।हालांकि, सुशील मोदी को उपमुख्यमंत्री नहीं बनाकर बीजेपी ने यह  स्क्रिप्ट लिख दी थी कि बिहार सरकार में वह नीतीश को फ्री हैंड देने के मूड में नहीं है। यह किसी से छिपी बात नहीं है कि एक सहयोगी के रूप में सुशील मोदी के लेकर नीतीश जितना सहज रहे हैं, उतना बीजेपी के किसी नेता के साथ नहीं रहे हैं। बिहार बीजेपी में सुशील मोदी के विरोधी माने जाने वाले एक पूर्व केंद्रीय मंत्री ने कहा कि मैं बीजेपी-जेडीयू गठबंधन खत्म किए जाने का शुरू से पक्षधर रहा हूं,लेकिन यह स्वीकार करने में मुझे हिचक नहीं है कि सुशील मोदी सरकार में होते तो यह नौबत नहीं आती। उन्होंने कहा कि इस सरकार की बुनियाद उसी समय कमजोर हो गई थी, जब सुशील मोदी सरकार का हिस्सा नहीं बनाए गए थे।

राजनीतिक कौशल में माहिर रहे अरुण जेटली के बारे में कहा जाता रहा है कि वह दिल्ली में नीतीश के लिए सहारा थे। वर्ष 2005 के नवंबर में विधानसभा चुनाव से पहले अरुण जेटली ही थे, जिन्होंने नीतीश कुमार को एनडीए की ओर से मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने के लिए जबर्दस्त पैरवी की थी। इसकी वजह से जेडीयू के तत्कालीन नेता जॉर्ज फर्नांडिस नाराज भी हो गए थे, तो उनकी नाराजगी भी जेटली ने ही दूर की थी कि आरजेडी को पदच्युत करने के लिए नीतीश एनडीए की ओर से सबसे मुफीद चेहरा हैं। नवंबर 2005 के चुनाव परिणाम में जेटली का यह दांव एकदम सटीक बैठा और बीजेपी-जेडीयू की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। उसके बाद से ही अरुण जेटली के देहांत तक नीतीश ने उन्हें गुरु की तरह सम्मान दिया। इसका सबूत यह भी है कि अरुण जेटली के देहांत के बाद बिहार सरकार ने दो दिनों के राजकीय शोक की घोषणा की थी।

नीतीश कुमार, जेटली  की बात को कितना मान देते थे इसका एक और उदाहरण है। अरुण जेटली ने एक करीबी सहायक को जब उनके पास भेजा तो उन्होंने उस शख्स को राजनीतिक संजीवनी दी और आज वह नीतीश के करीबी मंत्रियों में से हैं। 2017 में जब नीतीश वापस बीजेपी के साथ आए थे, तो उसमें भी अरुण जेटली ने ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

कड़वाहट के साथ 2013 में नीतीश की एनडीए से विदाई के बाद भी जेटली और नीतीश के बीच हमेशा मधुर संबंध बने रहे। बिहार के मुख्यमंत्री दिल्ली जाते तो अक्सर वित्त मंत्री अरुण जेटली के घर डिनर करते थे। 22 जुलाई 2017 को पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की विदाई डिनर में ही जेटली ने नीतीश कुमार को एनडीए के साथ वापस लाने की पटकथा शुरू कर दी थी। नीतीश को इस बारे में ब्रीफ किया गया था कि आरजेडी उनकी सरकार को गिराने की कोशिश में है। इसी डिनर में बीजेपी नेतृत्व की ओर से नीतीश को भरोसा दिलाया गया था कि वह महगठबंधन से बाहर आते हैं तो बीजेपी उन्हें समर्थन देगी। इसके बाद 26 जुलाई को अमित शाह ने सुशील मोदी को ही फोन करके नीतीश के समर्थन में बीजेपी विधायकों को पहुंचने के लिए कहा था।

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