उत्तराखंड कांग्रेस किस हद तक अंदरूनी संघर्ष से गुजर रही, खुलकर सामने आए नेताओं के मतभेद

उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने का श्रेय भाजपा को जाता है, मगर जब वहां वर्ष 2002 में पहले विधानसभा चुनाव हुए तो मतदाताओं ने कांग्रेस को चुना, यह उनका देश की सबसे पुरानी पार्टी के प्रति भरोसा ही था। तब मुख्यमंत्री बनाए गए नारायण दत्त तिवारी, जो राज्य गठन के बाद से अब तक एकमात्र ऐसे मुख्यमंत्री रहे, जिन्होंने पांच वर्ष का कार्यकाल पूर्ण किया।

वर्ष 2007 में फिर भाजपा सत्ता में आई, पर अगले पांच वर्ष के दौरान उसने दो बार नेतृत्व परिवर्तन कर डाला। शायद यह जनता को रास नहीं आया और वर्ष 2012 में एक बार फिर जनमत कांग्रेस के पक्ष में चला गया। इसे उत्तराखंड में कांग्रेस का चरमोत्कर्ष कहा जा सकता है, क्योंकि इसके बाद पार्टी के पतन की शुरुआत हो गई। वर्ष 2014 की शुरुआत में कांग्रेस ने उत्तराखंड में विजय बहुगुणा के स्थान पर हरीश रावत को मुख्यमंत्री पद सौंपा तो तब कांग्रेस के एक बड़े दिग्गज पूर्व केंद्रीय मंत्री सतपाल महाराज की उम्मीदें टूट गईं और ठीक लोकसभा चुनाव से पहले वह भाजपा में चले गए।

मार्च 2016 में पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के नेतृत्व में विधानसभा के बजट सत्र के दौरान नौ विधायकों ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया। न्यायालय के निर्देश के बाद फ्लोर टेस्ट में हरीश रावत सरकार तो बच गई, लेकिन एक अन्य विधायक रेखा आर्या भी कांग्रेस से छिटक कर भाजपा में शामिल हो गईं। विधानसभा चुनाव से ऐन पहले तत्कालीन कैबिनेट मंत्री यशपाल आर्य भी भाजपा की राह चल दिए।

कांग्रेस में इस बड़ी टूट का परिणाम यह रहा कि वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस न केवल 11 सीटों पर सिमट गई, बल्कि भाजपा ने तीन-चौथाई से अधिक बहुमत के साथ सरकार बनाई। तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत दो-दो सीटों से लड़े, मगर पराजित हो गए। इसके बाद हुआ यह कि रावत को कांग्रेस हाईकमान ने केंद्रीय संगठन में महासचिव का दायित्व सौंप असम का प्रभारी बना दिया। इसके बाद रावत को पंजाब के प्रभारी पद का दायित्व दिया गया। यद्यपि रावत इस साल हुए विधानसभा चुनाव से पहले हाईकमान से अनुमति लेकर उत्तराखंड लौट आए।

कांग्रेस ने उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा तो घोषित नहीं किया, पर चुनाव अभियान समिति की कमान जरूर सौंप दी। इस बीच एक बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम यह हुआ कि यशपाल आर्य और हरक सिंह रावत की कांग्रेस में वापसी हो गई। दो बड़े नेताओं के पार्टी में लौटने के बावजूद विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इसका बहुत अधिक फायदा नहीं हुआ। विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस में अंतर्कलह सतह पर दिखाई देने लगा था। दरअसल तब कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह को हटाकर हरीश रावत के करीबी गणेश गोदियाल को संगठन की जिम्मेदारी दे दी गई। डा. इंदिरा हृदयेश के निधन के कारण उनके स्थान पर प्रीतम सिंह को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया गया।

प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव यद्यपि राज्य में सक्रिय रहे, पर यह पार्टी के कई नेताओं को नहीं सुहाया। रही-सही कसर पूरी हो गई विधानसभा चुनाव में करारी हार से। इसका ठीकरा फूटा प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल के सिर, उन्हें पद छोड़ना पड़ा। उनकी जगह पूर्व विधायक करन माहरा को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी गई। पिछली विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे प्रीतम सिंह पर भी हार की आंच आई और उन्हें इस विधानसभा में यह पद नहीं दिया गया।

कांग्रेस हाईकमान ने घर वापसी करने वाले वरिष्ठ नेता यशपाल आर्य को नेता प्रतिपक्ष का जिम्मा दिया। विधानसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस में बदलाव हुए तो नेताओं के मतभेद भी खुलकर सामने आ गए और यह सिलसिला अब भी जारी है। मीडिया में आरोप-प्रत्यारोप के कारण पार्टी को लगातार असहज स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। कांग्रेस में किस हद तक नेताओं में मतभेद और मनभेद हैं, यह प्रदेश अध्यक्ष करन माहरा एवं पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह के मध्य हाल ही में हुई तकरार से समझा जा सकता है। प्रीतम सिंह ने हरिद्वार पंचायत चुनाव में पराजय के बाद प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव को यह कहकर कठघरे में खड़ा किया कि वह उत्तराखंड को पर्याप्त समय नहीं दे रहे हैं। इस पर पलटवार करते हुए करन माहरा ने कहा कि कुछ लोग ऐसा चश्मा लगाए हैं कि उन्हें प्रदेश प्रभारी की सक्रियता नहीं दिखती।

जवाब में प्रीतम सिंह बोले कि वह चश्मा जरूर लगाते हैं, लेकिन उनकी नजर कमजोर नहीं है। उधर पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने इंटरनेट मीडिया में अपना दर्द साझा किया कि अब वह राज्य नहीं, बल्कि दिल्ली की राजनीति करेंगे। अब अगर 74 वर्षीय बुजुर्ग हरीश रावत को राज्य की राजनीति से संन्यास लेकर दिल्ली का रुख करना पड़ रहा है तो समझा जा सकता है कि कांग्रेस किस हद तक अंदरूनी संघर्ष से गुजर रही है।

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